कुछ भी नही
डॉ अ कीर्ति वर्द्धन
है बहुत कुछ पास मेरे, पर मेरा कुछ भी नही,
मेरा मेरा सब करें, पर साथ जाता कुछ भी नहीं।
मृगतृष्णा में उलझा मानव, इधर उधर भागा फिरे,
पास जाकर देखता, मृगमरीचिका कुछ भी नहीं।
झूठ सच पाप पुण्य, जिनकी खातिर करता रहा,
पंख परिन्दों को मिले, उनके लिये कुछ भी नहीं।
जितने भी आये इस जगत, सब आकर चले गये,
ज़र जमीनें कीं इकट्ठा, लेकर गये कुछ भी नहीं।
धर्म का मतलब जिन्होंने, दहशत को माना सदा,
मानवता का मोल उन्होंने, जाना कुछ भी नहीं।
आतंक के पर्याय बनकर, जो निर्दोषों को मारते,
मौत उनके सम्मुख खड़ी, पहचाना कुछ भी नहीं।
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