दोहरी जिंदगियां
जो जीते हैं आज़ दोहरी ज़िंदगियां,चेहरे पे मुस्कान, भीतर हैं तन्हाइयाँ।
हर लम्हा निभाते हैं किरदार सौ-सौ,
मगर आँखों में छिपी हैं सच की परछाइयाँ।
वो चलते हैं भीड़ के संग, मगर अकेले,
हर मोड़ पे खुद को ढूँढ़ते रहते हैं झमेले।
दुनिया को दिखाते हैं साहस और रौशनी,
भीतर कहीं बुझती हैं उम्मीदों के मेले।
जो वक़्त पे हँसते हैं, रोना भी जानते हैं,
हर ताज के पीछे काँटे भी पहचानते हैं।
उनके हश्र से वाकिफ रहिए जनाब,
वो आइना भी हैं और धुँधली पहचान भी।
झूठ की चादर ओढ़े वो सच से मिलते हैं,
हर सवाल पे अपने ही साये से डरते हैं।
ये दोहरी ज़िंदगियाँ आसान नहीं होतीं,
ये जिए नहीं जाते, बस ढोए जाते हैं।
. स्वरचित,
मौलिक एवं अप्रकाशित
"कमल की कलम से"
"कमल की कलम से"
(शब्दों की अस्मिता का अनुष्ठान)
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