वीर सावरकर: एक प्रखर राष्ट्रवादी के तेजस्वी नक्षत्र
सत्येन्द्र कुमार पाठक प्रबंध संपादक ,
निर्माण भारती ( हिंदी पाक्षिक ) ।
विनायक दामोदर सावरकर, जिन्हें वीर सावरकर के नाम से स्मरण किया जाता है, भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में एक अद्वितीय और तेजस्वी व्यक्तित्व के रूप में उभरे। वे न केवल एक प्रखर राष्ट्रवादी और क्रांतिकारी थे, बल्कि एक ओजस्वी वक्ता, लेखक, कवि और दूरदर्शी विचारक भी थे। उनका जीवन, त्याग, संघर्ष और राष्ट्र के प्रति अटूट समर्पण की एक ऐसी गाथा है जो पीढ़ियों को प्रेरित करती रहेगी। उनका जन्म 28 मई 1883 को महाराष्ट्र के नासिक जिले के भागुर गांव में एक चितपावन ब्राह्मण परिवार में हुआ था। उनके पिता दामोदर पंत सावरकर और माता राधाबाई थीं। बाल्यकाल से ही उनमें देशभक्ति की भावना कूट-कूट कर भरी थी और वे अन्याय के विरुद्ध आवाज उठाने में कभी पीछे नहीं हटे । सावरकर का प्रारंभिक जीवन भागुर जैसे छोटे से गांव में बीता, लेकिन उनकी सोच और कल्पना की उड़ान बहुत ऊंची थी। बचपन में ही उन्होंने अपने साथियों को संगठित कर 'वानर सेना' नामक एक समूह बनाया, जिसके माध्यम से वे ब्रिटिश शासन के विरुद्ध प्रतीकात्मक गतिविधियाँ करते थे। उनकी प्रारंभिक शिक्षा गांव के ही विद्यालय में हुई। मेधावी छात्र होने के कारण उन्होंने आगे की शिक्षा के लिए नासिक और फिर पुणे का रुख किया। पुणे के फर्ग्यूसन कॉलेज में उन्होंने उच्च शिक्षा प्राप्त की, जहाँ वे लोकमान्य तिलक जैसे राष्ट्रवादी नेताओं के विचारों से गहरे प्रभावित हुए। कॉलेज के दिनों में ही उन्होंने स्वदेशी आंदोलन में सक्रिय रूप से भाग लेना शुरू कर दिया और विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार करने का आह्वान किया।सावरकर के हृदय में स्वतंत्रता की ज्वाला प्रचंड रूप से धधक रही थी। उन्होंने महसूस किया कि केवल याचिकाएं और विरोध प्रदर्शन ब्रिटिश साम्राज्य को हिला नहीं सकते। इसी सोच के साथ उन्होंने 1899 में अपने भाई गणेश सावरकर के साथ मिलकर 'मित्र मेला' नामक एक गुप्त क्रांतिकारी संगठन की स्थापना की। इस संगठन का उद्देश्य सशस्त्र क्रांति के माध्यम से भारत को पूर्ण स्वतंत्रता दिलाना था। धीरे-धीरे, 'मित्र मेला' का विस्तार हुआ और 1904 में इसका नाम बदलकर 'अभिनव भारत' रखा गया। यह संगठन महाराष्ट्र के युवाओं के बीच देशभक्ति और क्रांतिकारी विचारों का प्रसार करने का एक महत्वपूर्ण मंच बन है।
उच्च शिक्षा प्राप्त करने के उद्देश्य से सावरकर 1906 में लंदन गए। हालांकि, उनका मुख्य लक्ष्य भारत की स्वतंत्रता के लिए अंतर्राष्ट्रीय समर्थन जुटाना और भारतीय छात्रों को क्रांतिकारी विचारों से प्रेरित करना था। लंदन में उन्होंने 'इंडिया हाउस' में निवास किया, जो भारतीय राष्ट्रवादियों का एक प्रमुख केंद्र था। उन्होंने श्यामजी कृष्ण वर्मा, मदनलाल ढींगरा और लाला हरदयाल जैसे प्रमुख क्रांतिकारियों के साथ मिलकर काम किया। लंदन में रहते हुए सावरकर ने न केवल भारतीय छात्रों को संगठित किया, बल्कि ब्रिटिश सरकार की नीतियों की खुलकर आलोचना भी की। उन्होंने विभिन्न सभाओं और लेखों के माध्यम से भारत की स्वतंत्रता का पक्ष मजबूती से रखा।
सावरकर की क्रांतिकारी गतिविधियाँ ब्रिटिश सरकार की नजरों से छिपी नहीं रह सकीं। 1910 में उन्हें मदनलाल ढींगरा द्वारा किए गए कर्जन वायली की हत्या के मामले में षडयंत्र के आरोप में गिरफ्तार कर लिया गया। फ्रांस में मार्सेलिस के तट पर एक साहसिक प्रयास के बावजूद, वे ब्रिटिश पुलिस के शिकंजे से बच नहीं पाए और उन्हें वापस भारत लाया गया। उन पर मुकदमा चलाया गया और उन्हें दो आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई, यानी कुल 50 वर्ष की कैद रहे हैं। उन्हें अंडमान निकोबार द्वीप समूह की कुख्यात सेल्युलर जेल में भेजा गया, जिसे 'काला पानी' के नाम से जाना जाता था। इस जेल में उन्होंने अमानवीय यातनाएं सहीं। कठोर परिश्रम, एकांत कारावास और शारीरिक व मानसिक उत्पीड़न उनकी दृढ़ इच्छाशक्ति को तोड़ नहीं सका। काला पानी के भयावह अनुभवों ने उनके विचारों को और अधिक परिपक्व किया और उनकी राष्ट्रवादी भावना को और अधिक दृढ़ बनाया। जेल में रहते हुए भी उन्होंने लेखन कार्य जारी रखा और अन्य कैदियों को शिक्षित करने का प्रयास किया।
1924 में सावरकर को सशर्त रिहा किया गया। उनकी गतिविधियों पर कई प्रतिबंध लगाए गए, जिसमें रत्नागिरी में रहने और किसी भी राजनीतिक गतिविधि में भाग न लेने की शर्त प्रमुख थी। हालांकि, इन प्रतिबंधों के बावजूद, उन्होंने सामाजिक और सांस्कृतिक क्षेत्र में अपना योगदान जारी रखा। उन्होंने अस्पृश्यता निवारण और जातिगत भेदभाव के उन्मूलन के लिए महत्वपूर्ण कार्य किया। रिहाई के बाद सावरकर ने हिंदू महासभा में सक्रिय भूमिका निभाई और 1937 में इसके अध्यक्ष चुने गए। उन्होंने 'हिंदुत्व' की अपनी विशिष्ट विचारधारा का प्रतिपादन किया, जिसमें उन्होंने हिंदू पहचान को एक सांस्कृतिक, ऐतिहासिक और राष्ट्रीय एकता के सूत्र के रूप में प्रस्तुत किया। उनके विचारों ने भारतीय राजनीति और समाज पर गहरा प्रभाव डाला और आज भी यह एक महत्वपूर्ण बहस का विषय बना हुआ है ।
सावरकर एक असाधारण लेखक और कवि भी थे। उन्होंने मराठी और अंग्रेजी में कई प्रभावशाली पुस्तकें और लेख लिखे। उनकी प्रसिद्ध पुस्तकों में '1857 का स्वतंत्रता संग्राम' द इंडियन वॉर ऑफ इंडिपेंडेंस ऑफ 1857 शामिल है, जिसमें उन्होंने 1857 के सिपाही विद्रोह को भारत के स्वतंत्रता के लिए पहला संगठित प्रयास बताया। यह पुस्तक ब्रिटिश सरकार द्वारा प्रतिबंधित कर दी गई थी, लेकिन गुप्त रूप से इसका प्रसार होता रहा और इसने राष्ट्रवादी भावनाओं को प्रज्वलित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उनकी अन्य महत्वपूर्ण कृतियों में 'हिंदुत्व: हू इज अ हिंदू?' , 'माझी जन्मठेप' माई ट्रांसपोर्टेशन फ़ॉर लाइफ - उनकी अंडमान जेल की आत्मकथा), और कई कविताएं और नाटक शामिल हैं। उनके लेखन में राष्ट्रवाद, इतिहास, दर्शन और सामाजिक सुधार जैसे विषयों पर उनके गहरे विचार व्यक्त होते हैं। उनकी ओजस्वी भाषा और तार्किक प्रस्तुति पाठकों को गहराई से प्रभावित करती थी। सावरकर केवल एक राजनीतिक नेता या क्रांतिकारी ही नहीं थे, बल्कि एक समाज सुधारक भी थे। उन्होंने हिंदू समाज में व्याप्त कुरीतियों, विशेषकर अस्पृश्यता के विरुद्ध आवाज उठाई। उन्होंने अंतरजातीय विवाह और सहभोज का समर्थन किया और दलितों को मंदिरों में प्रवेश दिलाने के लिए आंदोलन चलाए। उनका मानना था कि एक मजबूत और एकजुट हिंदू समाज ही एक स्वतंत्र और शक्तिशाली भारत की नींव रख सकता है। वीर सावरकर का निधन 26 फरवरी 1966 को मुंबई में हुआ। उनका जीवन और विचार आज भी भारतीय राजनीति और इतिहास में एक महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं। वे एक जटिल व्यक्तित्व थे, जिनके विचारों का समर्थन और विरोध दोनों ही व्यापक स्तर पर होता है। कुछ लोग उन्हें एक महान देशभक्त और दूरदर्शी नेता मानते हैं, जिन्होंने भारत की स्वतंत्रता के लिए अपना सर्वस्व न्योछावर कर दिया, जबकि अन्य उनकी हिंदुत्व की विचारधारा की आलोचना करते हैं।
हालांकि, इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में उनका योगदान अत्यंत महत्वपूर्ण था। उनके क्रांतिकारी विचार, उनका ओजस्वी नेतृत्व और उनका साहित्यिक योगदान पीढ़ियों को प्रेरित करता रहेगा। उन्होंने भारतीय राष्ट्रवाद की एक मजबूत नींव रखी और हिंदू समाज को एकजुट करने का प्रयास किया। उनका जीवन हमें सिखाता है कि अपने सिद्धांतों के लिए अडिग रहना और राष्ट्र के लिए सर्वस्व बलिदान करने के लिए हमेशा तत्पर रहना चाहिए। वीर सावरकर, एक तेजस्वी नक्षत्र की भांति, भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के आकाश पर सदैव चमकते रहेंगे।
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