जाग री जनते!
मार्कण्डेय शारदेय
कब तलक तू मोहनिद्रा में पड़ेगी बोल?कब तलक तेरी जवानी दब सड़ेगी बोल?
आस पर उपवास ही पढ़ती रहेगी बोल?
देख तेरा उजड़ता है बाग री जनते!
जाग री जनते!
सिंहिनी-सी शक्ति क्या वह खो गई है बोल?
रक्त की सारी ललाई धो गई है बोल?
किस जहर से शिथिल काया हो गई है बोल?
पूर्वजों से सी ख पौरुष-राग री जनते!
जाग री जनते!
मच गई है लूट पूरा देश है बेचैन,
हाय! बूढ़ों-से खुले असमर्थ दोनों नैन,
नौजवानों की जवानी पी रहा है मैन,
हर तरफ हैं अनय के ही नाग री जनते!
जाग री जनते!
देश की नैया बिना नाविक बिना पतवार,
डगमगाती डोलती है, है न कूल-कगार,
तोड़ सारे मोह-बन्धन कर महाहुंकार,
कर परीक्षित-पुत्र-सा ही याग री जनते!
जाग री जनते!
बेचते हैं देश जो हैं एक मुट्ठी लोग,
भोगते हम जा रहे हैं मान दैवी रोग,
क्या नहीं है यह हमारा क्लीवता का रोग?
उठ, मिले, छीना सभी का भाग री जनते!
जाग री जनते!
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