दाम्पत्य जीवन
पति-पत्नी का दाम्पत्य जीवन ,रेलगाडी़ का पावन ये यान है ।
करनी हो जहाॅं यात्री को यात्रा ,
पहुॅंचाता वह गन्तव्य स्थान है ।।
पत्नी बनती पति का सहारा ,
पति बनता उसका विमान है ।
दोनों होते हमसफर के यात्री ,
दोनों दो जिस्म एक जान हैं ।।
दोनों ही एक मंजिल की यात्री ,
दोनों को एक दूजे पे भान हैं ।
दाम्पत्य जीवन के दो चालक ,
एक ही मंजिल का अरमान है ।।
रेलयान सा छुक-छुक करके ,
जीवन यान ये बढ़ता जाता है ।
नहीं इसमें गार्ड की ही जरूरत ,
न इंजन कोई सीटी बजाता है ।।
किंतु कोई उतरे इंजन से पहले ,
कोई और आगे बढ़ जाता है ।
रूक जाती वह वहीं पे इंजन ,
जहाॅं दूसरा भी उतर जाता है ।।
पूर्णतः मौलिक एवं
अप्रकाशित रचना
अरुण दिव्यांश
डुमरी अड्डा
छपरा ( सारण )बिहार ।
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