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है बहुत कुछ पास मेरे, पर मेरा कुछ भी नही,

है बहुत कुछ पास मेरे, पर मेरा कुछ भी नही,

मेरा मेरा सब करें, पर साथ जाता कुछ भी नहीं।
मृगतृष्णा में उलझा मानव, इधर उधर भागा फिरे,
पास जाकर देखता, मृगमरीचिका कुछ भी नहीं।
झूठ सच पाप पुण्य, जिनकी खातिर करता रहा,
पंख परिन्दों को मिले, उनके लिये कुछ भी नहीं।
जितने भी आये इस जगत, सब आकर चले गये,
ज़र जमीनें कीं इकट्ठा, लेकर गये कुछ भी नहीं।

डॉ अ कीर्ति वर्द्धन
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