चूल्हा चौका गोबर से लीपा जाता था,
चौके में ही बैठ भोजन किया जाता था।फूँकनी से फूंक मार, था चुल्हा जलता,
माँ के हाथों से उस पर खाना बनता था।
पटरी पर बैठ माँ के सभी काम पूरे होते थे,
कपड़े धोने तक सभी काम पटरी पर होते थे।
घुटती दाल पतीली में, उबाल निकाला जाता,
रोटी सेंकने को कोयले चिमटे से करने होते थे।
वह स्वाद दाल का आज तलक भी याद हमें है,
गन्ने के रस की खीर का वो स्वाद, याद हमें है।
फूली और करारी रोटी, ताज़ा मक्खन रखकर,
साग चने का घुटा हुआ मक्का रोटी, याद हमें है।
सोच रहा हूँ फिर से बचपन पा जाँऊ,
चूल्हे सम्मुख बैठ कर रोटी फिर खाऊँ।
ताजा मट्ठा साथ में मक्खन दाल उरद की,
एक और रोटी की ज़िद, माँ का प्यार पाऊँ।
डॉ अ कीर्ति वर्द्धन
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