अस्तित्व की लहर
जब हम होते तू नहीं,
छाया भर थी श्वास में, पर तू नहीं।
हर शून्य में अपनी ही प्रतिध्वनि थी,
हर मौन में गूँजती कोई अस्फुट पीड़ा।
मैं खोजता रहा तुझको,
अपनी ही सीमाओं के दायरे में,
मैं ही मैं था,
और तू... कहीं नहीं था।
किंतु जब तू आया,
मेरी परछाइयाँ घुल गईं धूप में,
स्वर मूक हो गए तेरी अनहद नाद में,
तब जाना—
मैं तो मात्र भ्रम था,
एक लहर, एक कंपन,
जो तुझसे उठकर तुझमें ही विलीन हो गई।
जल की लहर जल में रहे,
पर जब तक लहर है,
तब तक 'मैं' का छलावा है,
तब तक 'जल' केवल 'जल' नहीं।
लहर की धड़कन में,
एक झूठा अस्तित्व है,
जो कहता है— "मैं हूँ।"
पर ओ अनंत!
जब लहर शांत हुई,
जब ‘मैं’ की सीमाएँ टूट गईं,
तब जल ही जल रह गया—
न कोई नाम, न कोई रूप,
केवल तू— निराकार, निर्गुण, नित्य।
ओ चेतना के अंतर्मन में झाँकने वाले!
तू कहाँ छुपा था इतने कालों से?
मैं तुझे बाहर खोजता रहा,
वृक्षों में, तारों में, शास्त्रों में, मन्त्रों में—
पर तू तो भीतर ही मुस्कुराता रहा,
मेरे मौन में, मेरी साँसों के बीच।
अब मैं नहीं—
केवल तू है,
एक शाश्वत स्पर्श,
जो मेरी अस्मिता को
अपने आलोक में विलीन कर चुका है।
मैं अब एक आह भी नहीं,
केवल तेरी साँस हूँ।
अब कोई प्रश्न नहीं,
केवल तेरा उत्तर हूँ।
. स्वरचित, मौलिक एवं अप्रकाशित
"कमल की कलम से" (शब्दों की अस्मिता का अनुष्ठान)
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