डॉ० अम्बेदकर की अभिव्यक्ति - सही राष्ट्रवाद है जाति-भावना का परित्याग - तभी राष्ट्रवाद औचित्य ग्रहण कर सकता है
दिव्य रश्मि पत्रिका के उपसम्पादक जितेन्द्र कुमार सिन्हा जी की कलम से |
सभी मनुष्य एक ही मिट्टी के बने हुए हैं औंर उन्हें यह अधिकार भी है कि वे अपने साथ अच्छे व्यवहार की मांग करें। परन्तु जिस मिट्टी में, पलकर हम सब बड़े हुए, उसके लिए मरना शान की बात है, इंसान में अगर यह अरमान है तो राष्ट्र के लिए मरना शान की बात है। डॉ० भीम राव अम्बेदकर ने अपनी अभिव्यक्ति में कहा था कि ‘‘मै अपने और राष्ट्र के बीच, राष्ट्र को ही महत्व दूंगा।’’
भारतीय इतिहास आदिकाल से ही उन महान चिंतकों एवं मनीषियों की थाती रहा है, जिन्होंने अपने विषद् चिंतन एवं दर्शन से समाज, ज्ञान-विज्ञान और कला-संस्कृति को हमेशा नये आयाम दिये है। प्रत्येक युग में मानव मूल्यों की सुरक्षा एवं संवृद्धि में वे सदैव अग्रणी रहे हैं और समाज तथा राज दोनों के दुराग्रही दंभ एवं कुरीतियों के प्रखर विरोधी भी थे। बुद्ध, कबीर, नानक, तुलसी, राजा राम मोहन राय, महर्षि दयानन्द और महात्मा गाँधी सभी सामाजिक चेतना और समभाव के अलमबरदार रहे थे। इसी सुशोभित गुरूतामण्डित लड़ी की कड़ी थे डॉ0 भीम राव अम्बेदकर।
डॉ० अम्बेदकर का पुरा नाम ‘भीमराव रामजी अम्बेदकर’ था। उनका जन्म 14 अप्रील, 1891 को मध्य प्रदेश की महु छावनी में हुआ था। इनका उपनाम ‘सकपाल’ था। इन्हें बाबा साहब की संज्ञा से अभिहित किया जाता है। इनके पूर्वज महाराष्ट्र के निकासी थे। डॉ० अम्बेदकर का निधन 06 दिसम्बर, 1956 को दिल्ली में हुआ था। डॉ० अम्बेदकर ने दो शादी किया था। पहली शादी 9 वर्ष की उम्र में, रामा बाई से 1905 में, जिसकी मृत्यु 1935 में हो गया था। दूसरी शादी ब्राह्नण कन्या शारदा कुबेर से 1948 में, जिसका नाम उन्होंने बदल कर सविता अम्बेदकर कर दिया था।
डॉ० अम्बेदकर का जीवन संघर्षों से भरा हुआ था, पर उन्होंने सिद्ध कर दिया था कि प्रतिभा और उच्च मनोबल से जीवन की हर बाधा पार की जा सकती है। उनके जीवन की सबसे बड़ी बाधा थी हिन्दू समाज की जाति व्यवस्था, जिसके तहत जिस परिवार में वे जन्मे, उसे ‘‘अस्पृश्य’’ माना जाता था। 1908 में युवक भीम राव ने बम्बई विश्वविद्यालय से हाई स्कूल की परीक्षा पास की। एक अस्पृश्य बालक के लिये यह एक अद्भूत एवं बिरल उपलब्धि थी। डॉ० अम्बेदकर के पिता अपने बच्चों को विशेषकर भीम राव को, विद्यार्जन के लिये निरन्तर प्रेरित करते रहते थे।
चार साल बाद बम्बई (मुंबई) विश्वविद्यालय से ही राजनीति शास्त्र और अर्थशास्त्र में स्नातक परीक्षा पास की और उसके साथ ही उन्हें बड़ौदा में नौकरी मिल गयी थी। इसी दौरान उनके पिता का निधन हो गया था। पिता की मृत्यु के चार माह बाद भीम राव को कोलंबिया विश्वविद्यालय में अध्ययन के लिए अमेरिका जाने का अवसर मिला था, जिसके लिये बड़ौदा राज्य के महाराज से उन्हें छात्रवृति प्राप्त हुई थी। उनकी यह उपलब्धि बेमिसाल थी। फिर भी वे संतुष्ट नही थे। इनका यह दृढ़ मत था कि ज्ञान ही शक्ति है और इस शक्ति के बिना वे उन करोड़ों अछूतों की बेड़ियों को नहीं काट सकते, जिनके कारण वे दासत्व की स्थिति में पड़े हुए हैं। 1913 से 1917 तथा 1920 से 1923 तक की अवधि में वे विदेश में रहे थे और 32 वर्ष की आयु में अंतिम रूप से भारत लौट आये थे। इस बीच स्वयं को उन्होंने एक जाने-माने प्रबुद्ध व्यक्ति के रूप में प्रतिस्थापित कर लिया था। कोलम्बिया विश्वविद्यालय में उन्हें उनके शोध ग्रंथ पर पीएचडी की डिग्री प्रदान की गयी थी। बाद में उनका यह शोध ग्रंथ पुस्तक के रूप में छपा जिसका शीर्षक था- ‘‘द एबूल्यूशन ऑफ प्रोविशियल फिनांस इन ब्रिटिश इंडिया’’।
लंदन में अपने प्रवास की अवधि 1920 से 23 तक के दौरान उन्होंने ‘‘द प्रोब्लम ऑफ द रूपि’’ नामक अपने शोध ग्रंथ का कार्य भी पूरा किया था जिसके लिये उन्हें डीएससी की उपाधि प्रदान की गयी थी। लंदन जाने के पहले उन्होंने बम्बई (मुंबई) के एक कॉलेज में कुछ दिनों तक अध्यापन कार्य भी किया था।अप्रील, 1923 में भारत लौटने पर अछूतों और दलितों के हित के लिए संघर्ष करने हेतु डॉ० अम्बेदकर ने स्वयं को पूरी तरह तैयार कर लिया था। उस समय तक भारत में राजनैतिक परिस्थितियाँ काफी बदल चुकी थी और देश में स्वतंत्रता संग्राम काफी आगे बढ़ चुका था। तब से आजादी मिलने यानि 1947 तक उनके जीवनवृत और भारतीय इतिहास को अलग कर पाना कठिन है।
डॉ० अम्बेदकर एक साधारण मानव नहीं, विशिष्ट प्रतिभा से सम्पन्न एक महामानव थे। उन्होंने कहा था कि ‘‘सही राष्ट्रवाद है जाति-भावना का परित्याग, राष्ट्रवाद तभी औचित्य ग्रहण कर सकता है जब लोगों के बीच जाति, नस्ल या रंग का अंतर भुलाकर उनमें सामाजिक भातृत्व को सर्वोच्च स्थान दिया जाए। राष्ट्रीय एकता के लिए, सभी के लिए, एक भाषा होना जरूरी है, वह है हिन्दी।’’
डॉ० अम्बेदकर अपने लोगों में व्याप्त अंधविश्वास को मिटाना चाहते थे, जिसके लिए उन्होंने किसी एक जाति या वर्ग के लिए कार्य नहीं किया बल्कि सम्पूर्ण मानवता को समता और बराबरी का हक दिलाने के लिए अटूट संघर्ष किया था। उन्होंने सदियों से सताये दलितों एवं शोषितों के बीच, जागृति का संदेश देते हुए, शेष समाज को, उनसे जुड़ने तथा उनके सुख-दुख में सम्मिलित होने के लिए प्रेरित किया था।
स्वाधीनता मिलने के बाद अगस्त, 1947 में उन्हें भारत का कानून मंत्री बनाया गया था, किन्तु हिन्दू कोड बिल को लेकर सरकार से मतभेद हो गया और उन्होंने कानून मंत्री के पद से इस्तीफा दे दिया था।
29 मई, 1956 को उन्होंने बम्बई में बुद्ध जयन्ती के अवसर पर घोषणा की कि वे अक्तूबर में बौद्ध धर्म की दीक्षा लेंगे और 14 अक्तूबर, 1956 को हिन्दू धर्म को त्याग कर बौद्ध धर्म की दीक्षा ली।
डॉ० अम्बेदकर को लोकतंत्र में विश्वास था और धार्मिक दृष्टि से भगवान बुद्ध का मत उन्हें अधिक आकर्षक लगता था। उनके प्रगतिशील विचारों का ही यह प्रमाण है कि भारतीय संविधान द्वारा देश से जाति, धर्म, भाषा और स्त्री-पुरूष के आधार पर सभी प्रकार के भेदभावों को सदा के लिए समाप्त कर दिया गया है। संविधान की एक-एक पंक्ति में उनकी संवैधानिक विज्ञता, विधि कुशलता, उनकी दूरदर्शित तथा बुद्धिमता प्रतिविम्बित है।
संविधान सभा ने अम्बदेकर को मसौदा समिति का अध्यक्ष नियुक्त किया था और इस तरह वह अस्पृश्य व्यक्ति मातृभूमि के संविधान का शिल्पी बना। डॉ० अम्बेदकर के विषय में भारत के भूतपूर्व प्रधान न्यायाधीश राजेन्द्र गडकर ने कहा था- ‘‘अम्बेदकर 20वीं शताब्दी के विधि निर्माता और आधुनिक मनु हैं लेकिन पुरातन मनु के विपरीत यह नया मनु जात-पात भजक तथा मानव में समानता और सामाजिक न्याय का पोषक था।’’
डॉ० अम्बेदकर ने प्रथम संपादकीय ‘मूक नायक’ में लिखा था कि ‘भारत को स्वतंत्र होने से पूर्व आर्थिक, सामाजिक, राजनीति एवं धार्मिक क्षेत्रों में समानता स्थापित करने का प्रयास करना चाहिए।’’ उन्होंने ‘स्टेट एंड मायनारिटाज’ ग्रंथ में जमीन के संबंध में अत्यन्त महत्वपूर्ण सुझाव दिये हैं। वे अर्थशस्त्री के नाते माल्थस के पक्षधर थे।
डॉ० अम्बेदकर जात-पात के प्रबल विरोधी थे। जाति-तत्व का सूक्ष्म विशलेशन करते हुए उनका कहना था कि यह न तो श्रम विभाजन पर आधारित है और न प्राकृतिक क्षमताओं पर। जाति व्यक्ति के लिये पहले से काम निर्धारित करती है, उनके प्रशिक्षण और उनकी मौलिक क्षमताओं पर नहीं। जात-पात का निर्धारण जन्म और माता-पिता के सामाजिक दर्जे पर किया जाता है। जाति व्यवस्था जिन विषैले सिद्धान्तों पर आधारित है उनसे कुंठाए जन्म लेती है। इसके कारण बदलती परिस्थिति के अनुरूप व्यवसाय और काम-धंधे में परिवर्तन करना असंभव हो जाता है। साथ ही, यह भ्रांति भी दृढ़ होती है कि सब नियति का खेल है और प्रगति असंभव है। उन्होंने ठोस तर्क देकर सिद्ध किया कि चतुर्वर्ण और जाति प्रथा के कारण ही भारत की बहुत बड़ी जनसंख्या स्थायी रूप से अक्षम हो गयी है।
डॉ० अम्बेदकर ने एक ओर समाज के लिए अहितकर रूढ़ियों और परम्पराओं पर चोट की थी, तो दूसरी ओर सदियों से सताये गये दलितों एवं शोषितों के बीच जागृति का संदेश देते हुए शेष समाज को उनसे जुड़ने तथा उनके सुख-दुख में सम्मिलित होने के लिए प्रेरित किया था।
डॉ० अम्बेदकर का राष्ट्रवाद दलितों और निर्धनों के उद्धार के साथ शुरू हुआ था। उन्होंने समानता और नागरिक अधिकार दिलाने के लिये जीवन पर्यन्त संघर्ष किया था। राष्ट्रीयता संबंधी विचार केवल गुलाम देशों की मुक्ति तक ही सीमित नहीं है वरन् वे प्रत्येक व्यक्ति की स्वतंत्रता चाहते थे। उनके अनुसार जब तक जातिविहीन समाज की स्थापना नहीं हो जाती, तब तक स्वतंत्रता का कोई महत्व नहीं है।
डॉ० अम्बेदकर ने कहा था कि किसी समाज की प्रगति का अनुमान इस बात से लगता है कि उस समाज की महिलाओं की कितनी प्रगति हुई है। जातिवाद को तोड़ने के लिए वास्तविक समाधान अंतर्जातीय विवाह है।
डॉ० अम्बेदकर के संबंध में हिन्दी, अंग्रेजी तथा अन्य भाषाओं में अनेक पुस्तकें प्रकाशित हुए हैं, जिसमें डॉ० अम्बेदकर लाईफ एण्ड मिशन, दि पोलिटिकल फिलोसफी ऑफ डॉ० बी० आर० अम्बेदकर, स्टाउट हैट्स एण्ड ओपेन हैन्ड्स, भारत निर्माता डॉ० अम्बेदकर तथा डॉ० अम्बेदकर एक चिंतन आदि प्रमुख है।
बाबा साहब एक महान समाज सुधारक, पद-दलितों के मुक्तिदाता, गरीबों के मसीहा और दबी-कुचली मानवता के फौलादी संरक्षक थे। भारत के इतिहास में उन्होंने जो विशिष्ट प्रतिष्ठाजनक स्थान बनाया है वह इसलिये नहीं कि वे एक धुआंधार लेखक, जाने-माने अर्थशास्त्री अथवा निपुण राजनीतिज्ञ थे या वकालत में उन्होंने बहुत यश कमाया या भारतीय गणराज्य के संविधान निर्माताओं में ग्रणी थे, बल्कि यह स्थान बना है तो इसलिये कि उन्होंने जात-पात के घिनौने संसार से अस्पृश्यों को बाहर निकाला, उन्हें सम्मान दिलाया, उन्हें अपनी ताकत का एहसास कराया, उनका साया बल जगाया, उन्हें संगठित कर एक मंच पर ला खड़ा किया तथा उनके अधिकारों के लिये संघर्ष का बिगुल बजाया था।
डॉ० अम्बेदकर ने कहा था कि ‘‘मेरे नाम की जय-जयकार करने से अच्छा है, मेरे बताए हुए रास्ते पर चलें।’’ उन्होंने यह भी कहा था कि ‘‘मैं राजनीति में सुख भोगने नहीं बल्कि अपने सभी दबे-कुचले भाईयों को उनके अधिकार दिलाने आया हूँ।’’ संविधान, एक मात्र वकीलों का दस्तावेज नहीं है यह जीवन का एक माध्यम है। रात रातभर मैं इसलिये जागता हूँ क्योंकि मेरा समाज सो रहा है। जो कौम अपना इतिहास नहीं जानती, वह कौम कभी भी इतिहास नहीं बना सकती। अपने भाग्य के बजाय अपनी मजबूती पर विश्वास करो। मनुवाद को जड़ से समाप्त करना मेरे जीवन का प्रथम लक्ष्य है। जो धर्म जन्म से एक को श्रेष्ठ और दूसरे को नीच बनाए रखे, वह धर्म नहीं, गुलाम बनाए रखने का षड्यंत्र है। राष्ट्रवाद तभी औचित्य ग्रहण कर सकता है, जब लोगों के बीच जाति, नस्ल या रंग का अन्तर भुलाकर उसमें सामाजिक भ्रातृत्व को सर्वोच्च स्थान दिया जाय। मैं तो जीवन भर कार्य कर चुका हूँ अब इसके लिए नौजवान आगे आए। अच्छा दिखने के लिए मत जियो बल्कि अच्छा बनने के लिए जिओ। जो झुक सकता है वह सारी दुनिया को झुका भी सकता है। लोकतंत्र सरकार का महज एक रूप नहीं है। एक इतिहासकार, सटीक, इमानदार और निष्पक्ष होना चाहिए। किसी का भी स्वाद बदला जा सकता है लेकिन जहर को अमृत में परिवर्तित नहीं किया जा सकता। न्याय हमेशा समानता के विचार को पैदा करता है। मन की स्वतंत्रता ही वास्तविक स्वतंत्रता है। इस दुनियाँ में महान प्रयासों से प्राप्त किया गया को छोड़कर और कुछ भी बहुमूल्य नहीं है। ज्ञान व्यक्ति के जीवन का आधार है। शिक्षा जितनी पुरूषों के लिए आवश्यक है उतनी ही महिलाओं के लिए भी। शिक्षा शेरनी का वो दुध है जो पीयेगा वो गुर्रायेगा।
स्वतंत्र भारत का संविधान, तैयार करते समय डॉ० भीमराव अम्बेडकर ने यह कल्पना भी नहीं की होगी कि पिछड़े वर्ग को अन्य वर्गों की बराबरी में लाने की भावना का देश के राजनेता धजियाँ उड़ाकर सत्ता प्राप्ति का माध्यम आरक्षण को बना लेंगे।हमारे देश के राजनेताओं ने तो इतनी होशियारी दिखाई कि आरक्षण को संवैधानिक रूप से समाप्त करने के बजाए, अपनी-अपनी सरकारों को चलते रहने के लिए डॉ० भीमराव अम्बेडकर द्वारा बनाये गये आरक्षण प्रावधानों को पार्टी की बहुमत के बल पर आरक्षण की समय सीमा बढ़ाते गये।
डॉक्टर भीमराव अम्बेडकर ने संविधान में देश के पिछड़े वर्ग को अन्य वर्गों की बराबरी में लाने के लिए सिर्फ पन्द्रह वर्षों की समय सीमा लागू की थी। इसका अर्थ यह हुआ कि 26 जनवरी, 1950 को लागू हुए संविधान में आरक्षण का प्रावधान सिर्फ 26 जनवरी, 1965 तक के लिए ही किया गया था। ऐसी स्थिति में 26 जनवरी, 1965 के बाद देश से संवैधानिक रूप से आरक्षण का प्रावधान समाप्त हो जाना चाहिए था।
आजादी के कुछ ही वर्षों बाद राजनीतिक पार्टियों के लिए आरक्षण सत्ता प्राप्ति का मुख्य माध्यम बन गया और आरक्षण वोट की राजनीति के दायरे में आ गया। अब तो स्थिति यह हो गई है कि राज्यों में आरक्षण का प्रतिशत बढ़ाने की स्पर्धा शुरू हो गई है। अब तो राज्यों में ऐसी स्थिति उत्पन्न हो गई है कि आरक्षण की सीमा को लेकर मची राजनीतिक खींचतान से सर्वोच्च न्यायालय भी परेशान हो गया है। सर्वोच्च न्यायालय ने इंदिरा साहनी मामले में 29 जनवरी,1992 को फैसला दिया था कि आरक्षण की सीमा पचास फीसदी तक ही रखी जाय। लेकिन सत्ता लोलुपता के लोभ ने राजनीतिक दलों को आरक्षण संबंधी करीबन तीन दशक पूर्व के इस फैसले को पुराना और मौजूदा स्थिति के अनुकूल नही मानते हुए, आरक्षण सीमा बढ़ाने की मांग कर रहे हैं।
केन्द्र सरकार आरक्षण संबंधित मसलों पर विचार के लिए दो बार पिछड़ा वर्ग आयोग का गठन कर चुकी है। पहला आयोग 1953 में काका केलकर की अध्यक्षता में गठित किया गया था। यह आयोग सामाजिक और आर्थिक रूप से पिछड़ी जातियों की संख्या 2399 बताई थी। केन्द्र सरकार ने 1961 में इस आयोग की रिपोर्ट को खारिज कर दिया था। बाद में दूसरा आयोग का गठन तत्कालीन प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई के मंत्रिमंडल की अध्यक्षता में 1979 में किया गया था, इस आयोग ने लगभग 3743 जातियों की पहचान कर के उन्हें पिछड़ा घोषित किया था और इस आयोग ने ओबीसी के लिए अलग से 26 फीसदी कोटा तय किया था। किन्तु इस आयोग की सिफारिशों पर तात्कालिक सरकार ने कोई विशेष ध्यान नही दिया। जबकि मंडल आयोग सबसे अधिक चर्चाओं में भी रहा, इसके बावजूद सर्वोच्च न्यायालय का इंदिरा साहनी मामले का फैसला सर्वाधिक सर्वमान्य रहा। यह फैसला आज भी देश में लागू है।
वर्तमान में सत्ताभोगी राजनीतिक वंशजों में संतुष्टि नही है और इस फैसले को मौजूदा हालतों में गया-गुजरा (आउट ऑफ डेट) बताकर सर्वोच्च न्यायालय से आरक्षण की इस सीमा को बढ़ाने की माँग करते रहे हैं। अब यहाँ एक गंभीर सवाल यह उठता है कि आरक्षण के माध्यम से सत्ता की कुर्सी तक पहुँचने का प्रयास करने वाले सामान्य वर्ग के राजनेताओं ने कभी देश के उस मतदाताओं की चिंता नहीं की, जो आरक्षण की सीमा से बाहर है (अर्थात् सामान्य वर्ग ( जनरल कोटे) में है)।
देश की गंभीर समस्या, अब बेरोजगारी हो गई है और इस समस्या का भी हमारे राजनेता चुनाव के समय, लाखों या करोड़ों में नौकरी देने की झाँसा देकर, सामान्य वर्ग के मतदाताओं का वोट, प्राप्त करने का प्रयास करते है। देश का आरक्षण कोटा के लोग अब इसी कारण से अपने आपको असुरक्षित महसूस करने लगे है। इसका मूल कारण गैर आरक्षित वर्ग के होने के कारण, न तो उनके पढ़े-लिखे होनहार बच्चों को नौकरी मिल पा रही है और न ही इस बढ़ती महंगाई के दौर में वह अपना जीवन यापन ठीक से कर पा रहे हैं।
दुखद बात यह है कि आज के राजनीतिक दलों एवं उनके नेताओं की सत्ता प्राप्ति की भूख, भूखे-नंगे गैर आरक्षित वर्ग के सदस्यों से भी अधिक बढ़ती जा रही है। देश की इस स्थिति का सर्वोच्च न्यायालय को भी भान है, इसलिए सर्वोच्च न्यायालय स्वयं भी आरक्षण को लेकर गंभीर चिंता व्यक्त करती रही है।
6 दिसम्बर, 1956 को बाबा साहब डॉ० भीमराव अम्बेदकर का महापरिनिर्वाण हो गया।
पिछड़ी जाति के मसीहा और भारतीय संविधान के निर्माता युग पुरूष बाबा साहेब भीम राव अम्बेदकर को 14 अप्रील, 1990 को मरणोपरान्त भारत सरकार ने राष्ट्रपति भवन में भारत रत्न, राष्ट्र के सर्वोच्च नागरिक पुरस्कार, से सम्मानित किया था और उनके एक विशाल चित्र का संसद के केन्द्रीय कक्ष में अनावरण भी किया था। ——————-
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