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बेटी का खत

बेटी का खत

एक बेटी ने अपने मात पिता और भाई बहिन के नाम खत लिखा। जो की आप सभी पाठकों के लिए भी एक संदेश है। जब बेटी माँ बाप के साथ रहती है बहुत ही हंसी खिल्ल खिलती रहती है और अपने जीवन के 24-25 साल तक वो घर परिवार की जान बनी रहती है। फिर सांसारिक रीति रिवाजों के कारण उस माँ बाप का घर छोड़कर एक अंजान व्यक्ति के साथ शादी करके जाना पड़ता है। जो उसके जीवन का ता उम्र आधार और सहारा व जीवन साथी होता है और सबसे विचित्र बात तो ये है की जिन्होंने पैदा किया पाला पोषा और पढ़ाया लिखया और उस काबिल बनाया वो लोग पति के आगे कोई मनाये नही रखते। जैसे ही लड़की की मांग भरी उस अंजान इंसान ने फिर वो ही उस सबसे प्यार हो जाता है और सारे रिश्ते पति के बाद आते है। ये संसार की एक रीत है जिसे हम और आप निभाते आ रहे है और आगे भी लोग निभायेंगे।
शादी के बाद एक बेटी ने एक पत्र अपने मात पिता और भाई बहिन के नाम लिखा की ये कैसी रीत उसने बनाई है जिसने इस दुनिया का निर्माण किया और सभी को अलग अलग रोल दिया। परंतु मैं उस निर्माता से पूछना चहाती हूँ कि क्या सिर्फ माँ बाप से अलग होने का नियम या रिवाज बेटियों का ही है? बेटी अपने माँ बाप को मुखनि नही दे सकती पूजा आदि की तैयारी बेटी करती परंतु चौकी पर बेटा ही बैठ सकता? शुभ कार्य की शुरुआत बेटी करती परंतु श्रेय बेटे को दिया जाता। और जब सुसराल में विवाह करके पहुंचती तो वहाँ पर भी भेद किया जाता की यह तो पराये घर से आई है। तो ये क्या समझेगी हमारी भावनाओं को और सही भी है की जिन्होंने पैदा किया उन्होंने दुसरो को सौप दिया और कहने लगे की मैंने अपना फर्ज निभा दिया। कितना संवेदनशील और सुख दुख का रिश्ता बस फर्ज निभाने तक ही सीमित है क्या। साल में एक बार बेटी को बुला लिया और कुछ तोहफे दे दिये और बस क्या आपका कर्तव्य और दायित्व का हो गये। इन्ही रीति रिवाजों के चलते न जाने कितनी बेटियां अपना जीवन गमा चुकी है और आगे भी गमा रही है। पहले तो खत से ही समाचारों का आदान और प्रदान होता था। जिसके करना बहुत लेट सूचनाएं आदि मिलती थी। जो अच्छा भी था और बुरा भी। परंतु आज के आधुनिक युग में सूचनाएं तो दो मिनिट में मिल जाती है। इसलिए अब खत का और भावनाओं का तो काम नही बचा। माँ बाप से पापा मम्मी का बन गए और छोटी छोटी और बड़ी बातों का संचार यंत्र के मध्यम से बातों के विस्तार होने लगा घर परिवार की बातों का हंसी मजाक बनाकर पब्लिक सिटी करने लगे। क्या पापा जी मैं भी इन यंत्रो का उपयोग करू या न करू? यदि करती हूँ तो संस्कारो का क्षय होता है और न करू तो रूढ़वादी लोग कहते है करू तो क्या करू। दिखावे की इस दुनिया में कैसे जिये की जिंदगी खुशाली से निकल जाए। फैशन का भी आज कल जमाना है पति भी मुझे आधुनिक परिधान में देखना चाहता है परंतु मेरा विवेक और संस्कार उसे मनाने को तैयार नही है क्या करू। आप लोगों के कट स्लीप और नेट वाले पतले कपड़े के वस्त्र कभी हमें पहनने नही दिया परंतु आज समय की मांग है करे तो क्या करे। उच्च शिक्षा आप ने हमें दिलाई परंतु उसे भी मर्यादाओं के अंदर रखकर।अब आप ही बताये कि आपने सही किया या मैंने उसे गलत ठंग से लिया। घर परिवार की खुशी के लिए अपना तन मन धन सभी समर्पित कर दिया है। जो मुझे सही लगा उसका मैंने अनुसरण किया और अब मुझे भी अपने बच्चों को वो ही सब करना है जो आपने मेरे लिए किया। याद आप सभी की बहुत आती है चाहकर भी आप के पास नही आ सकती हूँ क्योंकि घर की जिम्मेदारियों का बोझ मेरे सिर पर है। सास सुसर बुढे है जिन्हें मैं अकेला छोड़ नही सकती। सही कहते है लोग की लड़की का घर न माँ बाप वाला है और न ही सुसराल वाला। उन्होंने कन्यादान कर दिया। और सुसराल वालों ने पराधन कहकर मुझे सदा ही पराया समझा। बेटी का होना कितना सुखद और कष्ट तथा दर्द कारी है यहा बात मैं अपने पाठकों पर छोड़ता हूँ। एक बेटी का बाप होने का मुझे बहुत अच्छे से एहसास है। मेरे लिए तो बेटा बेटी एक जैसे है उसे हर अधिकार मिलना चाहिए जो एक बेटे को दिये जाते है।
जय जिनेंद्र
संजय जैन "बीना" मुंबई
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