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ब्रह्म की खोज

ब्रह्म की खोज

एक ब्रह्म के आधार पर ही प्रत्येक लोकों की सृष्टियाॅं आधारित हैं । एक ब्रह्म के आधार पर माता आदिशक्ति और एक ही माता आदिशक्ति के द्वारा देवलोक और देवलोक के द्वारा ही अन्य लोकों में सृष्टि की बारिश हुई है , जिनमें चौरासी लाख योनियों में सदैव आवागमन होता रहता है , जिनमें कुछ विशेष कर गुजरने की क्षमता विशेष रूप में मनुष्य को ही मिला है ।
जबसे यह सृष्टि प्रकृति के द्वारा संचालित हो रही है , तभी से मानव ऋषि मुनि ज्ञानी के रूप में तप , साधना , आराधना करके उन देव देवियों के दर्शन तो प्राप्त किए हैं , किंतु इतने वर्षों के बावजूद आज तक उनके मूल ब्रह्म का पता किसी ने नहीं लगा पाया कि ब्रह्म कौन हैं और वे कहाॅं रहते हैं ?
कहने के लिए तो सभी कहते हैं कि भगवान विष्णु ही ब्रह्म हैं , तो कोई कहता है कि भगवान भोलेनाथ ही ब्रह्म हैं , लेकिन ऐसी बात नहीं है । जिस तरह से देव देवी हम समस्त जीवों के मूल हैं , उसी तरह ब्रह्म भी देवी देवताओं के मूल हैं ।
यह मानव युग युगांतर से ब्रह्म का पता लगाने का हर संभव प्रयास करता आया है और आज भी करने की कोशिश कर रहा है ।
यों तो सबने पढ़ा या सुना है कि भगवान विष्णु , भगवान इन्द्र का दरबार लगा हुआ था , भगवान महादेव की अध्यक्षता में सभा बुलाई गई थी , लेकिन यह किसी ने नहीं सुना होगा ब्रह्म का दरबार लगा हुआ था । उस ब्रह्म का कुछ पता नहीं , यह जानते हुए भी कि ब्रह्म हैं ।
मानव का यह प्रयास आज भी जारी है । अभी तक पता लगाने के क्रम में मानव कहाॅं तक पहुॅंचकर पुनः वापस आए हैं , संभवतः पहुॅंचने का प्रयास कर रहे हैं --
बहुत सारे मानव के मन में जब ब्रह्म का पता लगाने की जिज्ञासा हुई तो लोग चल दिए उनका पता लगाने । चलते चलते वे वर्षों चलते रहे । जब अत्यधिक थक जाते तो लोग विश्राम कर लेते या अत्यधिक थकावट के कारण कुछ लोगों के मन में निराशा उत्पन्न हो जाती और वे नास्तिक बनकर वहाॅं से वापस होते रहे तथा इसे एक मात्र आडंबर , पाखंड की संज्ञा देना आरंभ कर दिए । किंतु जो बचे वे निरंतर आगे बढ़ते रहे और बढ़ते बढ़ते ऐसी जगह पहुॅंचे जहाॅं से अत्यंत घोर अंधेरा छाए हुए था , जहाॅं से दूर दूर तक कुछ भी दिखाई नहीं दे रहा था । दूर की बात तो दूर रही , समीप का भी कुछ दिखाई नहीं दे रहा था ।
अंततः धीरे-धीरे उनमें से भी काफी लोग निराश होकर वापस आ गए और वे भी निराश होकर नास्तिकों की श्रेणी में खड़े हो गए , किंतु जो ब्रह्म के दीवाने थे , वे कहाॅं हार मानने वाले थे , वे कहाॅं निराश होनेवाले थे । वे उस अंधेरे में भी निरंतर आगे बढ़ते रहे , इस विश्वास के साथ कि अंततः हमें सफलता प्राप्त करना है और पुनः वे अग्रसर होते रहे ।
काफी लंबी दूरी तय करने के बाद काफी पतली सी ज्योति की किरण आती हुई प्रतीत हुई , जिससे उनकी आशाओं की किरण भी जगी और वे उत्साहित होकर आगे बढ़ते रहे । जैसे जैसे वे आगे बढ़ते गए वैसे वैसे ज्योति किरण भी मोटी होती गई , जो एक अजीब सी दिव्य ज्योति थी । पुनः काफी आगे बढ़ने पर एक उदय होता हुआ सूरज दिखाई दिया , जिससे उनका उत्साह चौगुना बढ़ गया और वे पुनः आगे बढ़ते रहे । धीरे - धीरे वे जब सूरज के नजदीक पहुॅंचे तो पता चला कि वे एक असीमित लंबे चौड़े और अथाह गहराई लिए हुए एक महासागर के तट पर पहुॅंच गए हैं तथा जो हम चंद्रोदय देख रहे थे वह वास्तव में उस महासागर के जल का एक प्रतिबिंब था ।
अब वहाॅं जो पहुॅंच चुके थे , उनकी आस्था तो काफी हद तक जगी , किंतु अत्यधिक थकावट के कारण सभी लोग तट पर ही सो गए , किंतु जो ब्रह्म का पता लगाने हेतु पानी में भी उतरने को आतुर थे , उन्होंने स्वप्न में देखा कि एक अतीव सुन्दर मूर्ति है , जिस मूर्ति से यह दिव्य प्रकाश निकल रहा था उससे आवाज आई ------
बह रहे हो मृगतृष्णा में ,
निज में मेरा एहसास करो ।
मैं तुममें ही हूॅं वास करता ,
तुम भी तो सबमें वास करो ।।


मो को कहाॅं तू ढूॅंढे़ रे बंदे ,
मैं तो बसूॅं तेरे प्यार में ।
किंतु कुछ लोगों ने स्वप्न में देखा कि उन्हें जो दिव्य मूर्ति दिखाई दिया , उस मूर्ति को और भी तराश कर मानो उस मूर्ति में ही वे खुदा की तलाश कर रहे थे । उन्होंने स्वप्न में देखा कि पुनः उसी मूर्ति से आवाज आई कि :---
मुझे क्या तुम खोद रहे हो ,
खुद को खोदो खुदा मिलेगा ।
नहीं समझा तूने जो मुझको ,
तू अपने आपमें जुदा मिलेगा ।।
तबसे इनकी आस्था ईश्वर और खुदा में बढ़ गई और दोनों एक दूसरे से प्यार करने लगे , किंतु जो बीच मार्ग से ही वापस आ गए वे स्वयं नास्तिक हो गए और एक दूसरे पर व्यंग्य देने लगे , जिससे आपसी द्वेष उत्पन्न होकर लड़ाई झगड़ा मारपीट , नर संहार का रूप देने लगा ।
अंतरात्मा की आवाज
पूर्णतः मौलिक एवं
अप्रकाशित रचना
अरुण दिव्यांश
डुमरी अड्डा
छपरा ( सारण )बिहार ।
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