आतंक के विरुद्ध अब निर्णायक युद्ध हो
बन जाओ परशुराम इतना क्रुद्ध हो ,होने दो गतिमान कदम न अवरुद्ध हो ।
नहीं होगा काम बन विवेका व बुद्ध से ,
आतंक के विरुद्ध निर्णायक युद्ध हो ।।
कौआ नहीं सुनता यह प्रेम का गीत ,
गंगा भी प्रेम का प्रार्थना कहाॅं सुनती है ।
मंदोदरी विभीषण का रावण सुना कब ,
मकड़ी तो धुन में अपने जाल बुनती है ।।
नहीं इसमें हों मजहबी कोई भी बात ,
याद करो तुम वह पहलगाम की घात ।
नहीं सुनना उनकी कोई भी ऐसी बातें ,
होने न पाए उनके जीवन का प्रात ।।
धर्म पूछकर चलाई थी गोली जिसने ,
उसके खून से होली अब खेलना है ।
जैसे सुलाया था वह मौत के मुॅंह में ,
तड़पाते हुए मौत के मुॅंह धकेलना है ।।
करना होगा आतंकियों का अंत अब ,
उखाड़ना होगा इसको अब जड़ से ।
जहाॅं भी दिखे जैसे भी वह दिख जाए ,
मस्तिष्क उड़ाओ अब उसके धड़ से ।।
पूर्णतः मौलिक एवं
अप्रकाशित रचना
अरुण दिव्यांश
डुमरी अड्डा
छपरा ( सारण )बिहार ।
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