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.परशुराम : अमर क्रोध की ज्वाला

परशुराम : अमर क्रोध की ज्वाला

इतिहास के रक्तिम पृष्ठों पर
बार-बार उकेरी जाती है एक छवि —
धधकती आँखों में संकल्प की ज्वाला,
हथेली में धारण किया न्याय का फरसा।


वो केवल योद्धा नहीं थे,
ना ही एक साधारण अवतार;
वो थे विष्णु की चेतना के प्रखर उन्मेष,
धरा पर अन्याय के विरुद्ध
उग्र चेतावनी का घोष।


गहन तप से सिंचित तन,
धूलि में रमा हुआ,
किन्तु भीतर अग्नि-सी धधकती थी —
कर्म की, धर्म की, प्रतिशोध की।


किसी भी अन्यायी को
भूल से भी नहीं थी छूट;
राजाओं का गर्व झुकाया था उन्होंने,
कुल्हाड़ी के एक ही प्रहार से
कितनी बार धरा को निष्कलुष किया।


विद्युत की तरह चमकता उनका फरसा,
केवल शस्त्र नहीं था,
एक प्रतिज्ञा थी —
कि जब-जब अत्याचार बढ़ेगा,
वह स्वयं भस्म करने को पुनः उठेगा।


वनों में, गिरि-कंदराओं में,
नदियों के किनारों पर —
आज भी गूँजती है उनकी पदचाप,
आज भी धरती सुनती है
परशुराम की चेतावनी भरी गर्जना।


वे अमर हैं,
न समय की सीमाओं में बंधे,
न युगों की संधियों में रुके।
उनकी कथा
हर कालखंड में पुनः जन्म लेगी,
न्याय और धर्म के पुकारते स्वर में।


इतिहास उन्हें न भूला है,
न कभी भूलेगा —
जब भी अन्याय फन उठाएगा,
परशुराम फिर अपने फरसे के साथ
धधकती विभा में उतरेंगे।


. स्वरचित, मौलिक एवं अप्रकाशित
"कमल की कलम से" (शब्दों की अस्मिता का अनुष्ठान)
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