‘सात्त्विकता’ और धर्माचरण के बिना स्थायी विकास असंभव


- दिल्ली सम्मेलन में हुआ शोध प्रस्तुत
हाल ही में नई दिल्ली में आयोजित ‘रूरल इकॉनॉमिक फोरम’ में महर्षि अध्यात्म विश्वविद्यालय और स्पिरिचुअल साइंस रिसर्च फाउंडेशन के संयुक्त शोध में यह स्पष्ट किया गया कि प्राचीन भारतीय धर्मशास्त्रों में वर्णित ‘सात्त्विकता’, धर्माचरण, भारतीय गौ माता का महत्व और नामजप (sadhana) आदी वास्तव में स्थायी विकास के मूल तत्व हैं। मानव जीवन और पृथ्वी का भविष्य केवल पर्यावरणीय अनुकूलता तक सीमित सोच से नहीं, बल्कि आध्यात्मिक शुद्धता पर आधारित समग्र दृष्टिकोण से ही सुरक्षित किया जा सकता है, अन्यथा नहीं। इस शोध का प्रस्तुतीकरण श्री शॉन क्लार्क ने किया और इस के मार्गदर्शक महर्षि अध्यात्म विश्वविद्यालय के संस्थापक सच्चिदानंद परब्रह्म डॉ. जयंत बालाजी आठवले जी है।

औद्योगिक क्रांति के बाद से अब तक विकास की राह में पर्यावरण का अधिक विचार नहीं किया गया। ‘स्थायी विकास’ की संकल्पना पहली बार 1972 में स्टॉकहोम सम्मेलन में प्रस्तुत की गई थी; लेकिन 50 वर्षों बाद भी इसकी प्रभावी क्रियान्वयन नहीं हो पाया है। आज के पर्यावरणीय संकटों की जड़ें मानव की असात्त्विक वृत्तियों और धर्म से विमुख होने में निहित हैं। इसलिए ‘विकास’ केवल भौतिक नहीं, बल्कि आध्यात्मिक दृष्टि से भी सात्त्विक होना चाहिए – यही इस शोध का निष्कर्ष है।
जीडीवी बायोवेल तकनीक द्वारा किए गए एक प्रयोग में यह पाया गया कि स्नान के पानी में गौमूत्र की कुछ बूँदें मिलाने पर व्यक्ति के शरीर के सप्तचक्र 65 से 78 प्रतिशत तक संतुलित रूप से कार्यरत होते हैं, जबकि गौमूत्र के सेवन से यह संतुलन 90 प्रतिशत तक पहुँचता है। पॉलीकॉन्ट्रास्ट इंटरफेरेंस फोटोग्राफी (PIP) द्वारा यह देखा गया कि गाय की उपस्थिति से वातावरण में सकारात्मक ऊर्जा 22 प्रतिशत तक बढ जाती है । गौमूत्र के उपयोग से त्वचा रोगों और स्वास्थ्य पर सकारात्मक प्रभाव देखने को मिला है। इस कारण गाय से प्राप्त उत्पाद ग्रामीण भारत की समृद्धि की कुंजी बन सकते हैं।
यह शोध यह भी रेखांकित करता है कि अनेक रोग और व्यसन की जड़ें आध्यात्मिक होती हैं। ‘श्री गुरुदेव दत्त’ नामजप से व्यसनमुक्ति, मानसिक स्थिरता और प्रारब्धजन्य विकारों पर नियंत्रण संभव है। 3 माह नियमित रूप से ‘श्री गुरुदेव दत्त’ नामजप करने से 20 वर्ष पुराना एक्ज़िमा केवल नामजप से ठीक होने का उदाहरण इस शोध में दिया गया। कुल मिलाकर, अध्यात्मशास्त्र के अनुसार आज के पर्यावरणीय बदलावों और उनके भीषण दुष्परिणामों से बचने के लिए किए जा रहे उपाय केवल सतही हैं। जब संसार में असात्त्विकता बढती है, तो उसका दुष्प्रभाव पंचमहाभूत – पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश – पर पड़ता है, जो विश्व के पर्यावरणीय संतुलन को नियंत्रित करते हैं। वातावरण में सात्त्विकता बढाने का सर्वोत्तम उपाय साधना करना है। तभी भारत वास्तव में ‘आत्मनिर्भर भारत’ बन सकता है।
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