इतिहास का विकृतिकरण और नेहरू ( डिस्कवरी ऑफ़ इंडिया की डिस्कवरी ) पुस्तक से ...
- सम्राट अशोक और नेहरू की राजनीति - अध्याय 18
डॉ राकेश कुमार आर्य
शा स्त्र और शस्त्र का समन्वय ही किसी देश को महान बनाता है। शास्त्र किसी भी राष्ट्र की सांस्कृतिक और आध्यात्मिक चेतना का नाम है। शस्त्र उसकी सैनिक शक्ति और आर्थिक समृद्धि का नाम है। उसके भौतिकवादी स्वरूप का नाम है। इस प्रकार किसी भी राष्ट्र की आध्यात्मिक और भौतिक उन्नति समृद्धि शास्त्र और शस्त्र के साथ समन्वित होती है। इसी को किसी राष्ट्र का यशोबल कहा जा सकता है। भारतीय यशोबल का उपासक राष्ट्र है। इसकी भुजाएं बलशाली होकर भी यश की भूखी रही हैं। इसका अभिप्राय है कि भारत का भुजबल यशोबल से शासित अनुशासित रहा है। जिस राष्ट्र की भुजाएं यशोबल से हीन होती हैं वे निर्दयी होकर अत्याचारी हो जाती हैं। अन्य राष्ट्रों की अपेक्षा भारत के पास अपना यशोबल ही वह विशेष चीज है जो अन्य के पास ढूंढने से भी नहीं मिलता।
भारतवर्ष में जब तक इन दोनों का सामंजस्य बना रहा, तब तक देश की सीमाएं सुरक्षित रहीं। महात्मा बुद्ध के आगमन के पश्चात आतंकवादियों के विरुद्ध युद्ध की संभावनाओं पर जंग लगने लगा। अहिंसावाद का ऐसा रंग चढ़ा कि आततायी और आतंकवादी के विरुद्ध हथियार उठाना भी पाप मान लिया गया। सम्राट अशोक ने महात्मा बुद्ध के युद्ध विरोधी दृष्टिकोण को अपनाकर देश का भारी अहित किया। जिसका परिणाम यह हुआ कि आततायी और आतंकवादियों के विरुद्ध भारत के सैन्य अभियान की परंपरा बाधित हो गई। नेहरू जी गांधी जी की इसी अशोकवादी या महात्मा बुद्धवादी नीति के अनुगामी थे। जिसके अंतर्गत शास्त्र और शस्त्र के समन्वय को उचित नहीं माना जाता।
गांधी जी के शिष्य नेहरू जी ने इसीलिए अशोक के अहिंसावादी स्वरूप और चिंतन से प्रभावित होकर उसकी अपेक्षा से अधिक प्रशंसा की है।
नेहरू जी पृष्ठ 153 पर लिखते हैं कि "बहुत-से आदेशों में जो (अशोक ने) उसने जारी किये थे और जो पत्थरों और धातों पर अंकित किये गए थे, हम जानते हैं। ये आदेश सारे हिंदुस्तान में फैले थे और हमें अब भी मिलते हैं। इन आदेशों के जरिये उसने अपनी प्रजा को ही नहीं, बल्कि आनेवाली पीढ़ियों को भी अपना संदेशा दिया था। उसके एक आदेश में कहा गया है : -
"परम पवित्र प्रियदर्शी सम्राट ने अपने राज्य के आठवें वर्ष में कलिंग को जीता। डेढ़ लाख आदमी वहाँ से कैदी के रूप में लाये गए; एक लाख आदमी वहाँ पर मारे गए और इस संख्या के कई गुने लोग और मरे।"
सम्राट अशोक ने कलिंग विजय के लिए डेढ़ लाख लोगों को मरवा दिया। इसके उपरांत भी वह अहिंसावादी माना जाता है। नेहरू जी के पास पता नहीं कौन सा यंत्र था, जिसके स्पर्श से लाखों लोगों को मरवाने वाला व्यक्ति या राजा अहिंसावादी मान लिया जाता है और गूंगी बहरी अंग्रेजी सरकार को भारतवासियों की आवाज सुनाने के लिए सेंट्रल असेंबली पर कागज के बम फेंकने वाले भगत सिंह आतंकवादी हो जाते हैं। लाखों लोगों को मरवाने वाला अशोक अहिंसा का पुजारी है और लाखों नहीं करोड़ों लोगों के प्राणों की रक्षा करने वाले राम प्रसाद बिस्मिल, चंद्रशेखर आजाद, भगत सिंह, सावरकर, नेताजी सुभाष चंद्र बोस आदि उनकी दृष्टि में हत्यारे हैं।
"कलिंग के साम्राज्य में मिलाये जाने के ठीक बाद ही प्रियदर्शी सम्राट का अहिंसा-धर्म का पालन करना, उस धर्म से प्रेम और उसका प्रचार शुरू होता है। (अशोक का इस प्रकार अहिंसा धर्म का पालन करने वाला बनना ही भारत का दुर्भाग्य रहा। क्योंकि इसके पश्चात अशोक इस तथ्य को भूल गया कि धर्म की रक्षा के लिए और मर्यादाओं का पालन करने के लिए हिंसा भी आवश्यक है। राजधर्म के निर्वाह में इन दोनों का समन्वय अत्यंत आवश्यक है। वैदिक धर्म में अहिंसा की रक्षा के लिए हिंसा की जाती है। राजा का अपनी प्रजा के प्रति उदार होना जितना आवश्यक है, उतना ही आतंकवादी लोगों के विरुद्ध कठोर होना भी आवश्यक है। उसकी यह कठोरता ही उसका दंड अथवा डंडा है।) इस तरह प्रियदर्शी सम्राट का कलिंग-विजय पर पश्चाताप उदय होता है, (अशोक का यह पश्चाताप नेहरू जी जैसे इतिहासकार के लिए तभी प्रशंसनीय हो सकता था, जब वह इस बात पर पश्चाताप करता कि उसने निर्दोष लोगों की हत्या की है और भविष्य में निर्दोष लोगों पर किसी प्रकार का अत्याचार न करके दोषी लोगों को कठोर से कठोर दंड देने का प्रयास करेगा।) क्योंकि न जीते गए देश के जीते जाने के साथ ही खूनकशी और मौतें होती हैं और लोग बंदी करके ले जाये जाते हैं। यह प्रियदर्शी सम्राट को महान शोक पहुंचाने वाली बात है।"
अशोक को राजधर्म का पालन करते हुए न्याय प्रिय होना चाहिए था। पक्षपात शून्य होना चाहिए था। यह सब तो चलता, परंतु यह तभी संभव था, जब न्यायप्रियता की रक्षा के लिए अन्यायी लोगों को दंडित करने का साहस भी उसके भीतर होता। राजा के राज्य में बंदीग्रह इसलिए होते हैं कि वह उनमें आपराधिक पृष्ठभूमि के लोगों को लाकर डालेगा और उन्हें कठोर दंड इसलिए देगा कि उसके प्रजाजन सुखी और आनंदपूर्वक रह सकें।
नेहरू जी ने अशोक की प्रशंसा करते हुए आगे लिखा है कि
"अब अशोक हत्या या बंदी किया जाना नहीं देख सकता: जितने लोग कलिंग में मरे, उनके सौवें-हजारवें हिस्से का भी नहीं। (बस, यही वह दुर्गुण था जो बौद्ध धर्म का अनुयाई बनने के पश्चात अशोक के भीतर प्रविष्ट हो गया था। उसने राजधर्म को त्याग दिया अर्थात ददृष्ट लोगों को दोड़त करना भी छोड़ दिया। आगे चलकर यही भारत के दुभाग्य का कारण बना। इसी नीति को नेहरू जी ने भी अपनाया और कांग्रेस आज तक अपना रही है। उसकी दृष्टि में आज भी आतंकवादी आतंकवादी
नहीं है, वह एक मानव है और मानव होने के आधार पर उसके भी उतने ही अधिकार हैं जितने देश की मुख्यधारा में चलकर काम करने वाले नागरिकों को प्राप्त हैं।) सच्ची विजय, अशोक लिखता है, लोगों के दिलों पर कर्तव्य और दया-धर्म पालन करते हुए विजय हासिल करना है, (देश-धर्म के शत्रु आतंकवादी लोगों के विरुद्ध गांधी जी, नेहरू जी और उसके बाद कांग्रेस की सरकारें, इसी नीति का अनुकरण करती रही हैं, परंतु उनका हृदय परिवर्तन आज तक नहीं हुआ अर्थात उनके दिलों पर कांग्रेस विजय प्राप्त नहीं कर पाई। और इस तरह की सच्ची विजय उसने पा ली थी, (जबकि सच यह है कि जिस साम्राज्य को बनाने में चाणक्य और चंद्रगुप्त को अत्यधिक उद्योग करना पड़ा था और जिसका उद्देश्य राष्ट्र और धर्म की रक्षा करना था. अशोक की मृत्यु के पश्चात मौर्य साम्राज्य का वह भवन अप्रत्याशित ढंग से भरभराकर गिर गया। इसका कारण केवल एक ही था कि अशोक की नीतियां साम्राज्य को स्थाई स्वरूप देने की नहीं थीं। राजा अपने राजधर्म से पतित हो गया तो उसका परिणाम राष्ट्र को भुगतना पड़ा। न महज अपने राज्य में, बल्कि दूर-दूर के राज्यों में भी।"
अशोक को अहिंसा प्रेमी होना चाहिए था, परंतु जनता की रक्षा करने के संकल्प के साथ ही उसे ऐसा होना चाहिए था। यदि जनता चोर, लुटेरे और बदमाशों के अत्याचारों से पीड़ित हो और राजा हथियार फेंककर अपने अन्य कार्यों में व्यस्त और मस्त हो तो ऐसे राजा को राजा ना कहकर कायर कहा जाता है।
राजा को धर्म प्रेमी होने के साथ-साथ सहिष्णु भी होना चाहिए। यदि किसी बात पर जनता के लोग उसकी आलोचना करते हैं तो वह अंतरमंथन के माध्यम से अपनी भूल को स्वयं स्वीकार करे। इसके उपरांत भी यदि कुछ लोग जनता के बीच जाकर राजा को भला बुरा कहते हैं तो ऐसी आलोचनाओं से राजा को विचलित न होकर धैर्य बनाए रखना चाहिए।
"इसके अतिरिक्त यह है कि अगर कोई उनके साथ बराई करता है, तो उसे भी प्रियदर्शी सम्राट जहाँ तक होगा, सहन करेंगे। अपने राज्य के वन के निवासियों पर भी प्रियदर्शी सम्राट की कृपा दृष्टि है और वह चाहते हैं कि ये लोग ठीक विचार वाले बनें क्योंकि अगर ऐसा वह न करें तो प्रियदर्शी सम्राट को अनुशोच होगा, क्योंकि परम पवित्र महाराज चाहते हैं कि जीवधारी मात्र की रक्षा हो और उन्हें आत्म-संयम, मन की शांति और आनंद प्राप्त हो।
इस अद्भुत शासक ने, जिसे अब तक हिंदुस्तान में और एशिया के दूसरे हिस्सों में प्रेम के साथ याद किया जाता है, बुद्ध के सत्कर्म और सद्भाव की शिक्षा के फैलाने में और जनता के हित के कामों में अपने को पूरी तरह लगा दिया। वह घटनाओं को हाथ-पर-हाथ रखकर देखनेवाला और ध्यान में डूबा हुआ और अपनी उन्नति की चिंता में खोया हुआ आदमी न था। वह राज-कार्य में मेहनत करनेवाला था और उसने यह ऐलान कर दिया था कि मैं सदा काम के लिए तैयार हैं; सब वक़्तों में और सब तरह, चाहे मैं खाना खाता होऊं, चाहे रनिवास में होऊं, चाहे अपने शयन में रहूं, या स्नान में, सवारी पर रहूं या महल के बाग में, सरकारी कर्मचारी, जनता के कार्यों के बारे में मुझे बराबर सूचना देते रहें। ... जिस समय भी हो और जहां भी हो, मैं लोक-हित के लिए काम करूंगा।"
वास्तव में अशोक में कई ऐसे गुण थे जो कि एक अच्छे राजा में होने ही चाहिए तो इसका अर्थ कदापि यह नहीं कि वह स्वाधीन भारत की शासन व्यवस्था का आदर्श हो सकता था। उसके दूत असीरिया, मिस्त्र, मैसिडोनिया, साइरीन और एपाइरस तक बुद्ध के संदेश और उसकी शुभ कामनाओं को लेकर गये थे। कलिंग युद्ध के पश्चात अशोक के पास तत्कालीन भारत देश का कोई ऐसा क्षेत्र शेष नहीं रह गया था, जिस पर वह अधिकार कर सकता था। महात्मा बुद्ध के संदेशों का विस्तार करने के लिए सम्राट अशोक ने अपने पुत्र और पुत्री अर्थात महेंद्र और संघमित्रा को दक्षिण में भेजा। ऐसा करते हुए भी उसने दूसरे धर्मों के लिए आदर का भाव दिखाया। एक आदेश में उसने यह ऐलान किया: सभी मत किसी-न-किसी वजह से आदर पाने के अधिकारी हैं। (बस यही वह बौद्धिक विश्लेषण है, जिसने वर्तमान भारत में विनाश मचा रखा है। यदि सब मत एक मत के होते तो विभिन्न मतों की सत्ता कब की समाप्त हो गई होती वास्तव में मजहब या मत पंथ संप्रदाय यह सब तभी तक रहते हैं या रहेंगे जब तक इनकी विभाजनकारी सोच और शिक्षाएं जीवित रहेंगी।) इस तरह का व्यवहार करने से आदमी अपने मत की प्रतिष्ठा को बढ़ाता है, साथ ही वह दूसरे मतों और लोगों की सेवा करता है।
बौद्ध-धर्म हिंदुस्तान में काश्मीर से लेकर लंका तक बड़ी तेजी के साथ फैला। यह नेपाल में भी पैठा और बाद में तिब्बत और चीन और मंगोलिया तक पहुँचा। हिंदुस्तान में इसका एक नतीजा यह हुआ कि शाकाहार बढ़ा और शराब पीने से लोग बचने लगे। उस वक़्त तक ब्राह्मण और क्षत्रिय दोनों ही मांस खाया करते थे और शराब पीते थे। (नेहरू जी का यह आकलन पूर्णतया निराधार है। किसी विदेशी लेखक के कथन के आधार पर उन्होंने ऐसा लिखा है। यह भारतीयता को अपमानित करने वाला कथन है।) पशुओं का बलिदान रोक दिया गया।
क्रमशः
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