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एक हाथ माला, दूजे में भाला

एक हाथ माला, दूजे में भाला

पहलगाम की वादियाँ फूलों से भरी थीं,
अब वहाँ पसरा है मातम,
बैसरन की वादी में पसरा है लहू,
और रूहें काँप रही हैं बर्फ़ के नीचे।
तुमने मारा उन्हें—जो तुम्हारे भी थे,
जिनकी साँसें गंगा-जमुनी तहज़ीब में पली,
जिन्होंने तुम्हें कभी ‘पराया’ नहीं कहा।


क्यों?
क्योंकि तुम्हें रटवा दी गई नफ़रत की तालीम,
और समझा दिया गया कि जन्नत की राह,
किसी निर्दोष की हत्या से होकर जाती है।


ओ बदकिस्मत कश्मीरियों,
तुमने अपनी ही तस्वीर को नोच डाला है।
पीठ पीछे वार कर,
तुमने वो जंग हारी है जो कभी थी ही नहीं।


कभी झाँका है पाकिस्तान के उस हिस्से में?
जहाँ तुम्हारे भाई भूख से बिलबिलाते हैं?
जहाँ आज़ादी एक मज़ाक है,
और हक़ सिर्फ़ सैनिक बूटों के नीचे दफ़न है।


वहाँ न तो स्कूल हैं, न स्वास्थ्य, न रोजगार,
बस है तो बस एक अधूरा सपना—
जिसे तुम 'कश्मीर' कहते हो,
और वो तुम्हें सिर्फ़ ‘चारा’ समझते हैं।


सनातन की संतानों ने तो कहा था:
"सर्व धर्म समभाव",
पर जब सहिष्णुता को कायरता समझा गया,
तो एक हाथ में माला रखने वालों ने
दूसरे हाथ में भाला उठा लिया।


मत समझो ये ख़ामोशी डर है,
ये बस उस आँधी का सन्नाटा है—
जो जब उठेगी,
तो न तो तुम्हारी बंदूकें बोलेंगी,
न पाकिस्तान के झूठे वादे बचा पाएँगे।


आओ,
एक बार गिलगित-बाल्टिस्तान की गलियों में झाँक लो,
वहाँ की आँखें तुम्हें सच कहेंगी,
कि पाकिस्तान सिर्फ़ गुरबत बाँटता है—
रोटी नहीं, सिर्फ़ बारूद देता है।


अब भी समय है—
इस भ्रम से बाहर आ जाओ।
कश्मीर तुम्हारा था, है और रहेगा,
पर शांति और प्रेम के साथ,
नफ़रत और बंदूक के नहीं।


. स्वरचित, मौलिक एवं अप्रकाशित
"कमल की कलम से" (शब्दों की अस्मिता का अनुष्ठान)
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