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हमारे बारेमें

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हम आगामी २८.०५.२०२१  को सातवें  वर्ष में प्रवेश कर रहें है | विगत छ: वर्षो से निरंतर धर्म / अध्यात्म और राष्ट्रवाद की अलख के साथ राष्ट्रीय एवं क्षेत्रीय खबरों को भी आप तक पहुचाते रहें है | अब पत्रिका की पहुँच पूरी दुनिया में हो इसी उद्देश्य से हमें इसका वेबपोर्टल (www.divyarashmi.com & https://www.youtube.com/playlist?list=PL62k-8ea3BIP5zKVKcDTPtc26LRB6z94f) युटुब चैनल की भी शुरुआत कर दी है | हमारा निबंधन संख्या  Google Publisher ID pub-2668826063897602   Google  Customer ID           9198329265 भारत सरकार का निबंधन संख्या RNI- BIHHIN/2015/65226 ISSN 2456–4745 UMA No-BR26D0061934 तथा DAVP No 133182  है |
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हम गर्व से कहते है हमारी पत्रिका धर्म के लिए कार्य कर रही है | हमें  बड़ा आश्चर्य लगता है जब लोग प्रत्येक दिन भारत में धर्मनिरपेक्षता की बात करते और कहते  है| परन्तु लोग धर्म-निरपेक्षता का अर्थ भी नहीं जानते अगर आप अपने घर परिवार में अपने धर्म का पालन करते है तो आप धर्मनिरपेक्ष कैसे होगए ?  अगर भारत वाकई में धर्मनिरपेक्ष होता तो हमारे देश के संसद भवन के केन्द्रीय कक्ष के द्वार के ऊपर पंचतंत्र का एक संस्कृत श्लोक अंकित कैसे होता । वह श्लोक इस प्रकार है :अयं निजः परोवेति गणना लघुचेतसाम्। उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम्।।(पंचतंत्र 5/38)
हिन्दी में इस श्लोक का अर्थ है:-यह निज, यह पर, सोचना,संकुचित विचार है।उदाराशयों के लिए अखिल विश्व परिवार है। वसुधैव कुटुंबकम की यह पवित्र भावना भारतीय शासन और शासकीय नीतियों का ध्येय वाक्य है। यदि इसके बारे में यह कहा जाए कि प्राचीन काल से अब तक भारत इसी नीति पर कार्य करने वाला देश रहा है तो कोई अतिशयोक्ति न होगी । भारत का धर्म उसे वसुधैव कुटुंबकम की पवित्र भावना में विश्वास रखने के लिए प्रेरित करता है।
भारत के संविधान निर्माताओं ने धर्म की अनिवार्यता को कहीं पर भी भंग नहीं किया ,अपितु उन्होंने धर्म को अपने लिए अनुकूल , उपयुक्त , उचित और प्रासंगिक मानकर उसकी कदम कदम पर अनिवार्यता को अनुभव किया है । तभी तो संसद भवन की लिफ्ट संख्या 1 के निकटवर्ती गुम्बद पर महाभारत का यह श्लोक अंकित है:-
न सा सभा यत्र न सन्ति वृद्धा,
वृद्धा न ते ये न वदन्ति धर्मम्।
धर्म स नो यत्र न सत्यमस्ति,
सत्यं न तद्यच्छलमभ्युपैति।(महाभारत 5/35/58)
इस श्लोक का हिन्दी अनुवाद इस प्रकार है:-
वह सभा नहीं है जिसमें वृद्ध न हों,
वे वृद्ध नहीं है जो धर्मानुसार न बोलें,
जहां सत्य न हो वह धर्म नहीं है,
जिसमें छल हो वह सत्य नहीं है।
बात स्पष्ट है कि हमारे संविधान निर्माताओं ने संसद के दोनों सदनों अर्थात राज्यसभा और लोकसभा में ऐसे धर्मप्रेमी , ज्ञानवृद्ध लोगों को भेजने का सपना संजोया था , जो संसद भवन में बैठकर धर्मानुसार शासन करने की नीतियों पर विचार करने वाले हों , उनका गंभीर ज्ञान रखने वाले हों । सचमुच भारत का यह दुर्भाग्य रहा कि स्वतंत्र भारत में कुछ देर पश्चात ही ऐसे लोग संसद में पहुंचने में सफल हो गए जो धर्म शब्द से ही घृणा करते थे , क्योंकि वह धर्म शब्द का अर्थ नहीं जानते थे ।
लोक सभा के भीतर अध्यक्ष के आसन के ऊपर यह शब्द अंकित है:- धर्मचक्र-प्रवर्तनाय धर्म परायणता के चक्रावर्तन के लिए प्राचीन काल से ही भारत के शासक धर्म के मार्ग को ही आदर्श मानकर उस पर चलते रहे हैं और उसी मार्ग का प्रतीक धर्मचक्र भारत के राष्ट्र ध्वज तथा राज चिह्न पर सुशोभित है। इसमें आठ चक्र हैं । इस धर्म चक्र का अर्थ है , अष्टांग योग की भारत की प्राचीन परंपरा को आज के साथ समन्वित करना। स्पष्ट है कि हमारे संविधान निर्माता भारत के अष्टांग योग की परंपरा के अनुसार भारत के लोगों को एक ऐसा न्यायपूर्ण शासन देने के पक्षधर थे जो लोगों को धर्मानुकूल आचरण करने के लिए प्रेरित करते हुए मोक्ष प्राप्ति का रास्ता बताता । ऐसे विद्वान जनों से जो संसद बनती जरा कल्पना कीजिए कि वह कितनी भव्य होती ?
भारतीय शासन के ध्येय वाक्य सत्यमेव जयते के बारे में बहुत कम लोग जानते हैं कि इसे भारत के राष्ट्रीय पटल पर स्थापित कराने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले पंडित मदन मोहन मालवीय जी हैं । जिन्होंने कांग्रेस के अध्यक्ष रहते हुए 1918 में इसे ध्येय वाक्य बनाकर चलने की प्रेरणा तत्कालीन कांग्रेसियों को दी थी । यह मुंडकोपनिषद का मंत्र है । भारतीय सांस्कृतिक परंपरा में निष्णात रहे पंडित मदन मोहन मालवीय जी ने इस धेय वाक्य को कांग्रेस को दिया तो स्वतंत्रता उपरांत यही ध्येय वाक्य भारतीय शासन का ध्येय वाक्य भी बना ।
शास्त्रों में आत्मा, परमात्मा, प्रेम और धर्म को सत्य माना गया है। इसका अभिप्राय है कि जहां आत्मा , परमात्मा , धर्म और प्रेम की बात होती हो वहां जीत होती है । बात स्पष्ट है कि जहां धर्मनिरपेक्षता हो अर्थात धर्म से दूरी बनाकर चलने की भावना हो , वहां जय न् होकर पराजय होती है । सत्यमेव जयते को भारत के शासन का ध्येय वाक्य बनाना एक अलग बात है परंतु सत्यमेव जयते की परंपरा के गूढ़ और रहस्यपूर्ण अर्थ को न समझना एक अलग बात है । निश्चित रूप से सत्यमेव जयते की परंपरा के वास्तविक और रहस्यपूर्ण अर्थ को समझकर चलने की परंपरा का भी भारत में आगे बढ़ना नितांत आवश्यक था ।
राजनीति में अशिक्षित और गुणहीन लोगों को राजनीतिक दलों के द्वारा थोक के भाव में भरा गया और अधर्मी , नीच , पापी और अपराधी प्रकृति के लोगों को संसद और विधानसभाओं में भेजा गया।
यह भी मानना पड़ेगा कि तथाकथित हिंदूवादी दलों के पास भी भारतीय संस्कृति , धर्म और इतिहास की विशुद्ध परंपरा को समझने वाले जनप्रतिनिधियों का अभाव रहा। जिसका परिणाम यह निकला कि सत्यमेव जयते केवल दीवारों पर लिखा गया ध्येय वाक्य मात्र बनकर रह गया । उसकी भावना हमारे शासन , शासन की नीतियों और परंपराओं में विकसित नहीं हो पाई । हमने सत्य को अर्थात धर्म को ही अफीम कहना आरंभ कर दिया। अफीम , भांग और गांजा पीने वाले को धर्म वैसे ही प्रिय नहीं होता जैसे चोर को घर में जलता हुआ दीपक प्रिय नहीं होता।
कहा जाता है कि सत्य से बढ़कर कुछ भी नहीं। सत्य के साथ रहने से मन हल्का और प्रसन्न चित्त रहता है। मन के हल्का और प्रसंन्न चित्त रहने से शरीर स्वस्थ और निरोगी रहता है।
सत्यमेव जयते (संस्कृत विस्तृत रूप: सत्यं एव जयते) भारत का राष्ट्रीय आदर्श वाक्य है। इसका अर्थ है : सत्य ही जीतता है / सत्य की ही जीत होती है। यह भारत के राष्ट्रीय प्रतीक के नीचे देवनागरी लिपि में अंकित है। यह प्रतीक उत्तर भारतीय राज्य उत्तर प्रदेश में वाराणसी के निकट सारनाथ में 250 ई.पू. में सम्राट अशोक द्वारा बनवाये गए सिंह स्तम्भ के शिखर से लिया गया है, लेकिन उसमें यह आदर्श वाक्य नहीं है। सत्यमेव जयतेमूलतः मुण्डक-उपनिषद का सर्वज्ञात मंत्र 3.1.6 है। पूर्ण मंत्र इस प्रकार है:
सत्यमेव जयते नानृतम सत्येन पंथा विततो देवयानः।येनाक्रमंत्यृषयो ह्याप्तकामो यत्र तत् सत्यस्य परमम् निधानम्॥
भावार्थ है कि अंततः सत्य की ही जय होती है , अर्थात आत्मा , परमात्मा , धर्म और प्रेम के अनुकूल किए गए आचरण व्यवहार और नीतियों की ही जय होती है । जो लोग आत्मा , परमात्मा , धर्म और प्रेम के विपरीत नीतियों को अपनाते हैं , उनकी देर सवेर पराजय होती है । असत्य की कभी जीत नहीं होती । यही वह मार्ग है जिससे होकर आप्तकाम (जिनकी कामनाएं पूर्ण हो चुकी हों) मानव जीवन के चरम लक्ष्य को प्राप्त करते हैं।
जिन शासकों ने अपने शासनकाल में किसी वर्ग विशेष के लोगों के नरसंहार किए या अपने से विपरीत विचारधारा रखने वाले लोगों को मौत के घाट उतारा या किसी भी कारण से शांति प्रिय लोगों पर अत्याचार किए , उनके इतिहास में नाम हो जाने का अभिप्राय यह नहीं है कि सत्य जीत गया था । इसके विपरीत उनके इन पापों का परिणाम यह हुआ कि इतिहास की तो हत्या हुई ही साथ ही सत्य एवं धर्म को परेशान करने की परंपरा का आरंभ भी हुआ । यह परंपरा अभी तक भी जारी है । लोग सत्ता स्वार्थों के लिए पता नहीं कैसे-कैसे पाप कर रहे हैं ? – सारे संसार में सत्ता स्वार्थ की पूर्ति की आग लगी हुई है । यदि सूक्ष्मता से इस लगती हुई आग पर दृष्टिपात किया जाए तो पता चलता है कि सत्य आज भी परेशान हो रहा है । इतिहास चाहे किन्हीं तानाशाहों के और अवैध व अनैतिक शासकों के कितने ही गुणगान कर ले , लेकिन संसार में लगती हुई आग एक दिन इन सारे तानाशाहों , क्रूर शासकों और अनैतिक लोगों के क्रियाकलापों को भस्मसात कर देगी।
भारत के सत्यमेव जयते की भांति ही हम देखते हैं कि पूर्ववर्ती चेकोस्लोवाकिया का आदर्श वाक्य प्रावदा वीत्येज़ी” (“सत्य जीतता है”) का भी समान अर्थ है।
भारत के धर्मनिरपेक्ष स्वरूप में विश्वास रखने वाले लोगों को धर्म और सत्य के समानार्थी स्वरूप पर अवश्य चिंतन करना चाहिए । सचमुच वह दिन बड़ा महान होगा जब धर्म और सत्य पर धर्म और सत्य की सुरक्षा के लिए समर्पित हमारे संविधान की मूल भावना का सम्मान करते हुए संसद में चर्चा होगी।
अब आते हैं यतो धर्मः ततो जयः (या, यतो धर्मस्ततो जयः) पर , जो कि एक संस्कृत श्लोक है। यह भारत के सर्वोच्च न्यायालय का ध्येय वाक्य है। यह महाभारत में कुल ग्यारह बार आता है और इसका मतलब है जहाँ धर्म है वहाँ जय (जीत) है।
इस ध्येयवाक्य का अर्थ महाभारत के उस श्लोक (संस्कृत: यतः कृष्णस्ततो धर्मो यतो धर्मस्ततो जयः) से आता है जब कुरुक्षेत्र के युद्ध में अर्जुन युधिष्ठिर की अकर्मण्यता को दूर कर रहे हैं। वो कहते हैं, “विजय सदा धर्म के पक्ष में रहती है, एवं जहाँ श्रीकृष्ण हैं वहाँ विजय है ।गांधारी भी अपने पुत्रों के मृत्यु के बाद समान उद्गार कहती है।
यतो धर्मः ततो जयः के इस ध्येय वाक्य पर भी यदि चिंतन किया जाए तो इसका अर्थ भी सत्यमेव जयतेही है । इस प्रकार स्पष्ट है कि हमारा सर्वोच्च न्यायालय और भारत का शासन अपने जिन ध्येय वाक्यों के आधार पर भारत में न्याय प्रदान करता है या शासन करता है उनका मूल चिंतन समानार्थी है ।
इसके उपरांत भी शासन अपने आपको धर्म से दूर रखने की नीति पर कार्य करता हुआ दिखाई देता है । गुड़ खाएं , पर गुलगुलों से परहेज ‘ — करने की शासन की नीतियां कार्य कर रही हैं । जिन्हें भारतीय संविधान के निर्माताओं की मूल भावना के विपरीत तो कहा ही जाएगा , साथ ही हमारे राजनीतिज्ञों का ऐसा आचरण उनकी अज्ञानता को भी प्रकट करता है।
हिंदुत्व की चेतना के इन मूल स्वरों को यदि हमारे संविधान निर्माताओं ने अपनाने का संकल्प लिया तो उन्हें बाद के शासकों ने क्यों विस्मृत कर दिया या शासन की ऐसी नीतियां क्यों बनाई गयीं जो भारतीयता के अनुकूल हिंदुत्व के इन स्वरों को समाप्त करती हुई जान पड़ती हैं ?
गंभीर प्रश्न है । जो आज की संपूर्ण राजनीति के लिए न केवल एक यक्ष प्रश्न है बल्कि उसकी आत्मा को झकझोर देने वाला प्रश्न भी है।